शादी एक समझौता
आज सुबह फिर से पेज ३ पर तलाक़ की एक खबर ने फिर से ये सोचने पर मजबूर कर दिया की क्या शादी एक समझौता है.लेकिन फिर से वही सवाल कौंधता है की अगर ये समझौता होता तो आज तक ये सफ़र कहीं न कहीं जाकर रुकता जरुर.इसी उधेरबुन में नेट पर मिल गए अपने मटुकनाथ .इस मैटर पर उनका विचार है-
पत्नी और मुझमें तालमेल नहीं था. लेकिन जब हमलोग विवाहित हो ही चुके थे, तो एक समझौता के साथ सामान्य सुखी दाम्पत्य जीवन शायद जी सकते थे. लेकिन पत्नी के मैके वालों के निरंतर मूढ़तापूर्ण हस्तक्षेप ने हमलोगों को मिलने और समझौते के साथ जीने नहीं दिया. उनकी एक ही शर्त थी कि मेरा कहीं प्रेम न हो, चाहे पत्नी से प्रेम न भी हो तो चलेगा. यह मेरे लिए घुटन भरा था. प्रेम-प्यासी मेरी आत्मा चीत्कार कर उठी थी. किसी भी कीमत पर गुलामी मुझे सह्य नहीं थी. आजादी की साँस लेते हुए जिनके साथ समानता और समझदारी के साथ सुन्दर जीवन जी सकूँ, ऐसी स्त्री की तलाश थी. दैवयोग से अंधेरे जीवन में रोशनी बनकर जूली आ गयी. अपने कदम को न्यायोचित ठहराने केे लिए पत्नी की किसी कमी को उघाड़ने में मेरी दिलचस्पी जरा भी नहीं है. कमियाँ दोनों में रही होंगी. कमियाँ मनुष्य में होती ही हैं.